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ओम प्रकाश शर्मा, 
   
   संस्थापक आचार्य       

                                                              स्वमेव मृगेन्द्रता ‘सा विद्या या विमुक्तये’            
मानव के जीवन में विद्या का विशेष महत्व है। पढ़ों सीखों, समझो और समाज के लिए उपयोगी बनों। ये  विद्या द्वारा ही सम्भव है। शिक्षा के मन्दिर में ज्ञानार्थ आयें और सेवार्थ जायें यही उद्देश्य रहता है।

          वर्ष 1979 में विद्या मन्दिर के रुप में कक्षा षष्ठ् की पढाई श्री सुरेश नागर द्वारा संघ कार्यालय पर 14 छात्रों से प्रारम्भ हुई। मै उस समय शिशु मन्दिर में आचार्य था। अगले वर्ष मैं भी विद्या मन्दिर चला गया तब यह श्री लक्ष्मी नारायण मन्दिर सरस्वती विद्यालय के नाम से संचालित था। जो स्टेशन के सामने धर्मशाला में चलता था। जब मेरे संज्ञान में आया कि उक्त विद्यालय संस्थागत न होकर व्यक्तिगत है। तो मैने अपने को उक्त विद्यालय से अलग कर लिया। स्व॰ श्री रमेश चन्द्र सक्सैना, स्व॰ श्री बैकुण्ठ नाथ जी, श्री रामदत्त जी प्रचारक एवं श्री भवतेन्द्र जी के सहयोग से शिशु मन्दिर परिसर में कक्षा षष्ठ् मेरे द्वारा सरस्वती विद्या मन्दिर के रुप में प्रारम्भ हुई। जो आज भी कार्यकाओं एवमं समाज के सहयोग से संचालित है। अगले वर्ष वह भी विद्यालय विद्या मन्दिर में विलय हो गया। प्रारम्भ में विद्यालय की आय शुल्क से थी । कुछ सहयोग आदरणीय रमेश जी (गुरु जी) के अथक प्रयास से समाज से भी सहयोग मिलता था। श्री सुरेश नागर मैं स्वयं और श्री श्रीनिवास यादव और श्री रमेश मेहता आचार्य गण थे। कड़ी मेहनत विद्यालय की सफाई दीवार की नीव आदि की खुदाई सब आचार्य गण ही करते थे। विद्यालय छप्पर के नीचे चलता था। विगट आर्थिक संकट था। आठवी का प्रथम बैच कुल 14 विद्यार्थी बोर्ड परीक्षा में प्रथम श्रेणी में पास हुए। जनपद में भी स्थान मिले अच्छी शिक्षा के कारण अगले वर्ष छात्रों के प्रवेश की लाइन लग गई और समाज के सहयोग कमरे भी बनने लगे। दिसम्बर 1982 में मेरी सरकारी नौकरी लगने के कारण विद्यालय छोड़ दिया आज विद्यालय भलीभांति चल रहा। गौरवांन्ति अनुभव कर रहा हूं।

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